इश्क करते हो ना किसी से? तड़प रहे हो किसी की खातिर? पा लेना चाहते हो न उसे? ऐसे सवालों में खुद को कैद कर के जीवन की सच्चाइयों से मुंह मोड बैठे हो..चलो आज तुम्हें रूबरू कराता हूँ एक सच से.. ये बताओ कभी खुद के अन्दर मनहूसियत महसूस की है? मन की दहलीज़ पर खड़े हो कर उसको छला है कभी? अपने अस्तित्व से उसकी औकात पूछी है? इज्ज़त की धज्जियां उड़ा कर मुकाम हासिल करने की कोशिश की है? भूखे पेट सोते हुए ख्वाबों को टटोला है? सीने में जलती आग में कूद कर देखा है? मुखौटा लगा कर खुद से फरेब करना सीख गए हो ना? अगर हाँ, फिर ऐसे सवालों से भागना भी सीख गए होगे..भागो तब तक जब तक हिम्मत न हो जवाब ढूंढ पाने की..जीवन की व्यस्तताओं के बीच अपनी आज़माइश के लिए वक़्त निकाल पाना मुश्किल है..अपने चेहरे की बदसूरती झेलने को श्रृंगार हटाना मुश्किल है..मुश्किल है खुद की खुद से भेंट..और मुश्किल है अपने गुरूर को तमाचा रसीद कर पाना भी.. मगर ये बताओ आसान क्या है? अपने व्यक्तित्व में वो दिखाना जो अन्दर कहीं नहीं? आत्मसम्मान की अस्थियों पर रिश्तों की नींव रखना? शक को पूरे यकीन के साथ पनपने देना? उम्र के ढलते सूरज को अनुभव के बादल से ढांक देना? इन तमाम बातों को सोचते हुए गुज़रती हुई ज़िन्दगी कितनी अर्थहीन लगने लगती है? मगर निरर्थक प्रयास तो हर रोज़ कर ही रहे हो कुछ न कुछ समझने की..व्याकुल मन को स्थिर करने को कुछ तलाशना तुम्हारी ज़रुरत बन चुका है..यूँ ही जीवन-यापन करते रहना मजबूरी बन चुकी है.. बेहतर है कि जागो और महसूस करो वो सब जिससे भाग रहे हो..झेलो अपने डर को, झेलो अपने आप को..यकीन मानो किसी और को झेलने से बहुत बेहतर होगा..
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Sunday, 5 February 2017
इश्क करते हो ना किसी से? तड़प रहे हो किसी की खातिर? पा लेना चाहते हो न उसे? ऐसे सवालों में खुद को कैद कर के जीवन की सच्चाइयों से मुंह मोड बैठे हो..चलो आज तुम्हें रूबरू कराता हूँ एक सच से.. ये बताओ कभी खुद के अन्दर मनहूसियत महसूस की है? मन की दहलीज़ पर खड़े हो कर उसको छला है कभी? अपने अस्तित्व से उसकी औकात पूछी है? इज्ज़त की धज्जियां उड़ा कर मुकाम हासिल करने की कोशिश की है? भूखे पेट सोते हुए ख्वाबों को टटोला है? सीने में जलती आग में कूद कर देखा है? मुखौटा लगा कर खुद से फरेब करना सीख गए हो ना? अगर हाँ, फिर ऐसे सवालों से भागना भी सीख गए होगे..भागो तब तक जब तक हिम्मत न हो जवाब ढूंढ पाने की..जीवन की व्यस्तताओं के बीच अपनी आज़माइश के लिए वक़्त निकाल पाना मुश्किल है..अपने चेहरे की बदसूरती झेलने को श्रृंगार हटाना मुश्किल है..मुश्किल है खुद की खुद से भेंट..और मुश्किल है अपने गुरूर को तमाचा रसीद कर पाना भी.. मगर ये बताओ आसान क्या है? अपने व्यक्तित्व में वो दिखाना जो अन्दर कहीं नहीं? आत्मसम्मान की अस्थियों पर रिश्तों की नींव रखना? शक को पूरे यकीन के साथ पनपने देना? उम्र के ढलते सूरज को अनुभव के बादल से ढांक देना? इन तमाम बातों को सोचते हुए गुज़रती हुई ज़िन्दगी कितनी अर्थहीन लगने लगती है? मगर निरर्थक प्रयास तो हर रोज़ कर ही रहे हो कुछ न कुछ समझने की..व्याकुल मन को स्थिर करने को कुछ तलाशना तुम्हारी ज़रुरत बन चुका है..यूँ ही जीवन-यापन करते रहना मजबूरी बन चुकी है.. बेहतर है कि जागो और महसूस करो वो सब जिससे भाग रहे हो..झेलो अपने डर को, झेलो अपने आप को..यकीन मानो किसी और को झेलने से बहुत बेहतर होगा..
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